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*अपना गांव*

वो अपना गांव ,वो पीपल की छांव त्योहारों पर लगता मेला, कुल्फी और चाट का सजता ठेला  यादों में घूमता पहिया जैसे गांव के मेंलों का झूला । वो बड़ों का हाथ,वो साथियों का साथ खुशियों भरा वों रंग जैसे मेलों में गुब्बारों का संग, मंच पर सजते स्वरूप जैसे जीवन बदलता पल - पल में रूप। वो बचपन के खेल , बिछरों का मेल दूर देश में मेरा मन, ढुंढ रहा अपना बचपन शहरों का जीवन,स्वार्थ भरा है हर मन सभी यहां मतलब के नाते कोई किसी को  नहीं हैं भाते। भाई - बहने पड़ोसी लगते,अपने में गुम मदहोशी लगते, कैसा हैं ये जीवन खोया - खोया रहता हैं मन, वो अपना गांव ,वो पीपल की छांव , त्योहारों का मेला जहां  कभी था अपना बसेरा ।                                                    ~Deepshikha jha