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~ दूरियां~

दूर से ढोल के धुन सुहावने लगते हैं, दूर के रिश्ते जमानें तक चलते हैं।  दूर से जंगल मनभावने लगते हैं, पास जानें पर डरावने  लगते हैं। कहते सुना है कि दोस्ती दूर सेअच्छी होती हैं, सच्चा प्यार अक्सर दूर हो जाय करतें हैं। दूर से कोयल की कूक प्यारी लगती हैं, दूर शीशे के दरवाज़े से वारिश निराली लगती हैं। दूर से आसमान हसीन लगतें है, सपने हक़ीक़त से रंगीन लागतें हैं। दूर संगीत की गूंज मधुर लगती हैं, जमीं से फ़लक की दूरी जंचति हैं। अब दूरियां बढ़ रही दरवीयां तो मायूसी कैसी चाहत तो यही थी अब ये ख़ामोशी और शिकायत कैसी , चाहत तो यही थी जो पूरी हुई हैं।                             ~Deepshikha Jha

* बे रहम दुआ *

दूरियों की दुआ मांग रहे जो कभी , सूनली खुदा ने अर्जी अब उनकी  रिश्तों से रिश्तों को दूर किया है। मां को बच्चे ,पत्नी को पति,  हर शख़्स को मजबूर किया है। इंसान को इंसानियत से दूर किया है। जो हाथ गिरने पर उठाने,जो दूसरों के आसुं पोछा करते थे जो भूखे को भोजन  और जरूरत मंद का सहारा बना करते थे वो आगे बड़ने से हिचकिचाने लगे अब । मजदूर से मजदूरी को दूर किया है। जिनको कभी पल भर की फुर्सत नहीं थी अपनों के साथ बैठने की वो थक गए मायूस और लाचार  चेहरों की रौनक लौटने को तरस रहे। नाम से नाम को दूर किया है। इस मौसम ने देखो कितनो को  मजबूर किया है। कोई नाम बनाने को मिटता था कभी ये कैसा दिन  आया है कई हस्तियों की कश्ती डूब गई ये कौनसा दौर नया लाया है।                            ~Deepshikha Jha 

*मेरी किताब*

मैं नहीं जानती कभी मुझे पहचान मिलेगी या नहीं मिलेगी मैं रोज़ अपनी ज़िन्दगी से सीखकर नई शुरुआत लिखतीं हूं मैं अपनी  किताब लिखतीं हूं । बे कस* ज़िन्दगी से चुराकर जस्बात  अपनी रोज़ नई अल्फ़ाज़* लिखतीं हूं  मैं अपनी किताब लिखतीं हूं। अदीब* नहीं मैं बे फ़िक्र कि तुम मुझे पढ़ा करों फिर रोज़ नई अज़ल*आगाज़ लिखतीं हूं मैं अपनी किताब लिखतीं हूं। *अकेला *शब्द *विद्वन *कभी ना मिटने वाला                             ~Deepshikha Jha