अनकही
दर्द बनकर चुभते हैं सीने में , बिन सावन के महीने में कण्ठ तक भर आती हैं , जब याद उनकीआती हैं, आखें छलक जाती हैं, भावनाएं बिखर जाती हैं, कौन हो तुम बता नहीं सकती, तुम पर हक कभी जाता नहीं सकती। हर लम्हा तड़प सी रहती हैं, बिन आग ही जलन रहती हैं, घुट - घुट कर अब जीना क्या, अपने अश्क को पीना क्या , बिखरी - बिखरी सी रहती हूं, ...