स्वार्थ और राजनीति
सामने आकर खड़ी हो गई कैसे "राजनीति ज़िन्दगी से बड़ी हो गई" सुनो! रुको जरा बात कोनसी बड़ी हो गई।
क्या कहें जनाब ! दुःख ना दर्द ना शोक बची ना पीड़ा
बेच रहें हैं "समाचार" जगत में मेरे ह्रदय का चीरा - चीरा।
जहां होतें अन्याय के साएं "राजनीति" वहां हैं पंख
फैलाए चिर हरण करने वाले घूम रहे बिन खोफ के साएं
संगिध शव है आश लगाए न्यायिक भोर कब मुक्ति पाएं
ज़िन्दगी यहां जिंदा जलाते ,ज़मीर यहां पर बिक जाते।
स्वार्थ जहां कहीं दिख जाते ,वहां से आबाजे बुलन्द है आतें, न्याय की गुहार अब कहां लगाएं, न्याय तो अब मंडी के ठेलों पर नज़र डालें , "राजनीतिक" सब मेल
जीवन मनो जैसे कोई खेल है ।
लोकतंत्र में लोग सत्ता धारी बनें हैं, जैसे देश"भारत" में
बीमारी लगें हैं शिर्फ़ कुर्सी की होड़ हैं ,अन्याय मचा घन - घोर हैं।
~दीपशिखा झा
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