मैं आत्मा हूं ,मुझ में ,तुझ में, उसमें, सब में होता हूं। मैं हूं तो तू रोता है, मैं हूं तो हस्ता हैं, मैं हूं तो तू है। मैं हूं तो हर जगह, हर समय, हर जीव और जीवन में हूं। मैं दया में, मैं क्रोध में , मैं लोभ में, माया और प्रेम भी मैं, मैं अहंकार में और मैं ही आदर और सम्मान में हूं, मैं प्रभावी हूं, मैं सह भागी हूं, मैं स्वार्थी भी हूं और पुरूषार्थ भी । सभी गुण से रहित मैं देना भी जनता हूं, और लेना भी। और जहां सम्मान ना मिले स्वाभिमान हूं। मैं आत्मा अभिमानी हूं। ~दीपशिखा झा
तितली सी। आज़ाद हूँ मैं , अपने पिता की सर ताज हूँ मैं। क्यों बांधो तुम मुझे इन बेड़ियों में, क्या छुपाने वाली कोई राज़ हूँ मैं। बिटिया - बिटिया कहकर समाज ने पायल बांध दिया पैरो में , इज्जत हूँ परिवार का नथ बांध दिया नाकों में। बेड़ियों में जकड़ी हुई, बेटी ,बहु , घर की लाज हूँ मैं । दहलीज के अंदर आज़ाद हूँ मैं, उड़ाने फिर रूक जाती हैं मेरी सब रिश्तों की बुनियाद हूँ मैं , ये स्त्री रूपी बंधनों से कब हुई आज़ाद हूँ मैं , पर्दों में लिपटी हुई , संभालती पूर्ण रस्मों रिबाज़ हूँ मैं , मर्यादाओं का दीवार हूँ मैं , महिला हूँ मन की रानी और मन में ही आज़ाद हूँ मैं । ~दीपशिखा झा✍️
आओ एक पेड़ लगते हैं ,प्रकृति को सुंदर बनाते है एक कसम ये खातें हैं होने ना देंगे अब इसे दूषित "प्रदूषण"आजसे मिटाते हैं आओं एक पेड़ लगते हैं प्रकृति को सुंदर बनाते हैं। प्रकृति ही "भगवान्"हैं जिससे हम अनजान हैं नहीं रखता ये बैर किसी से हम सभी संतान हैं जिसके "प्रकृति"को संजोए आज, नया चलो कुछ"बोएं"आज आओं एक पेड़ लगते हैं प्रकृति को सुंदर बनाते हैं । प्रथ्वी का सम्मान करें ,जीवन "जल"का ध्यान धरे, पशु - पक्षी खाद्य - जाल बिछा दी,जिसने उसका कुछ ऋण चूकते हैं आओं एक पेड़ लगते हैं प्रकृति को सुंदर बनाते है। ~ Deepshikha jha
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