संदेश

आत्मसम्मान

मैं आत्मा हूं ,मुझ में ,तुझ में, उसमें, सब में होता हूं। मैं हूं तो तू रोता है, मैं हूं तो हस्ता हैं, मैं हूं तो तू है। मैं हूं तो हर जगह, हर समय, हर जीव और जीवन में  हूं। मैं दया में, मैं क्रोध में , मैं लोभ में, माया और प्रेम भी मैं, मैं अहंकार में और मैं ही आदर और सम्मान में हूं, मैं प्रभावी हूं, मैं सह भागी हूं, मैं स्वार्थी भी हूं और  पुरूषार्थ भी । सभी गुण से रहित मैं देना भी जनता हूं, और लेना भी। और जहां सम्मान ना मिले स्वाभिमान हूं। मैं आत्मा अभिमानी हूं।                                            ~दीपशिखा झा 

हठ

बच्ची - बच्ची नहीं करतीं, मुझ में एक बच्चा रहता हैं, कितना समझाती हूं उसको, फिर ज़िद वो करता है। कभी - कभी जो रूठ जाएं, आँखों से मोती बिखर जाते हैं, लाख मनाती हूं उसको मायूस  हो कर रह जाता हैं। एकेले में जब मिलती हैं, बहलाती हूं समझाती हूं, बचपन का दौर गया अब तो, लेन-देन की शुरू कहानी है। मन कहता है हठ छोर दे, फिर उठ संभाल कर चल, रास्ते में अपनों से फिर नाता जुड़ जाता है, मेरे बचपना फिर से उभर आता है।                        ~दीपशिखा झा   

@ पर्दे के पीछे @

जिनकी कहानी लिखते थे , जिनके क़िस्से सुनते थे जिनको आदर्श मान कर,उनके पथ कदम पर चलते थे उनको भी आज देखा धूंआ में सुलगतें हुए । जो कभी देश के गौरव में सामिल थे, जब चलते वो हर  नामों के हर तरफ़ जिन के दरवाज़  पर पटकरों ने घेरे आज देखा उनके खिड़कियों पर पर्दे लगें हुए ।   जगमगाते चेहरे राज़ इनमें छुपाएं हुए गहरे ना जानें कितने ढूबें हैं मायानगरी के मयाबी समंदर में । पर्दे पर देखती जब मैं आदर्श किरदारों की कहानी मन में ही सोचती इस बात से अनजानी "पर्दे की लेखनी" हैं ऊपर वाले से अच्छी कहानी ।

वर्षगांठ

साथ साथ चले ना जाने कब उम्र वर्षों गुज़र गए  तुम आज भी वही सुर्ख गुलाब सी लगती हो  राहें सुंशान थी जब तन्हा हुआ करते थे सफ़र में तेरे साथ - साथ जिंदगी और हसीन होती रही हम एक - दूसरे के साथ चलते रहे ना जाने वक्त कब गुज़रा  कुछ याद नहीं  जिंदगी के हर दौर में तुम मेरे साथ रही  "जिंदगी" छोड़ा था मेरा साथ एक दफा पर तू मेरा हाथ थामे रही ,तेरे विश्वास  पे ही खड़ा हूं  ए "हमसफ़र "  तेरे साथ फिर चल पड़ा हूं मैं                              ~Deepshikha Jha

आज़ाद हूँ मैं

तितली सी। आज़ाद  हूँ मैं , अपने पिता की सर ताज हूँ मैं। क्यों बांधो तुम मुझे इन बेड़ियों में, क्या छुपाने वाली कोई राज़ हूँ मैं। बिटिया - बिटिया कहकर समाज ने पायल बांध दिया पैरो में , इज्जत  हूँ परिवार का नथ बांध दिया नाकों में। बेड़ियों में जकड़ी हुई, बेटी ,बहु , घर की लाज हूँ मैं । दहलीज के अंदर आज़ाद हूँ मैं, उड़ाने फिर रूक जाती हैं मेरी सब रिश्तों की बुनियाद हूँ मैं , ये स्त्री रूपी बंधनों से कब  हुई आज़ाद हूँ मैं  , पर्दों में लिपटी हुई , संभालती पूर्ण रस्मों  रिबाज़ हूँ मैं , मर्यादाओं का दीवार हूँ मैं ,  महिला हूँ मन की रानी और मन में ही आज़ाद  हूँ मैं ।                                              ~दीपशिखा झा✍️

* मन के रिश्ते*

*खून का रिश्ता तो सब को निभाना पड़ता हैं।   कभी वक्त पर रिश्ता बना कर तो देखो ।       *अमीर से यारी दुनियां करती हैं।         गरीब को दोस्त बनाकर तो देखों।     *जन्म से मिले रिश्ते सभी निभाते है।    जीवन भर का साथ निभा कर तो देखो।       *जरूरत पड़ने पर पुकारा करते हैं।     जरूरत के समय काम आकर तो देखो।             *जिंदगी एक संघर्ष हैं ।              इस संघर्ष में मुस्कुरा कर तो देखो ।
बिन कहें वो पढ़ लेती है मुझे , मेरे हिस्से का दर्द भी सह लेती हैं। हर बुरे साएं से बचाती हैं मुझे, अच्छाई का पाठ पढ़ाती हैं। परछाई सी साथ निभाती हैं ,  हर ज़ख़्म पे मरहम लगाती हैं। मेरी खुशी के लिए लड़ जाति है, अपने आंचल में गम छुपाती है । जैसे समंदर में मोती की तलाश हो, सभी के लिए तुम इतनी ही ख़ास हो  "माँ" तुम ऐसी एक "एहसास" हो , जिसकी सागर को भी प्यास हो ।                         ~Deepshikha Jha ✍️